लखनऊ : उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए सियासी पारा अभी से ही चढ़ने लगा है। जिला पंचायत चुनाव के बाद सबसे ज्यादा चर्चा ऑल इंडिया मजलिस इत्तेहादुल मुस्लिमीन की हो रही है, क्योंकि एआईएमआईएम सौ सीट पर चुनाव लड़ने का ऐलान कर चुकी है। यूपी में करीब 18 फीसदी मुस्लिम मतदाता है। यह 140 से अधिक विधानसभा सीट पर असर डालते हैं। एआईएमआईएम के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी इनमें से सौ सीट पर चुनाव लड़ेगें। पर सवाल यह है कि आखिर एआईएमआईएम यूपी में चुनाव लड़ना क्यों चाहती है। राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि ओवैसी राजनीतिक तौर पर महत्वकांक्षी हैं।
मीडिया की सुर्खियों में रहने से ओवैसी को राजनीतिक फायदा मिलता है। इससे तेलंगाना में उनकी स्थिति और मजबूत होती है। दूसरी पार्टियों की तवज्जो भी उनका काम आसान करती हैं। वह मानतें हैं कि ओवैसी पर भाजपा का अक्रामक रुख चौंकाता है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने ओवैसी को बड़ा और जनाधार वाला नेता बताकर चैलेंज स्वीकार कर उन्हें एक बड़े नेता के तौर पर स्थापित कर दिया है। जाहिर है, भाजपा को इससे फायदा मिल सकता है। भाजपा सांसद साक्षी महाराज कह चुके हैं कि एआईएमआईएम की मौजूदगी का भाजपा को बिहार में लाभ मिला। यूपी में भी इसका फायदा मिलेगा। यही वजह है कि सपा, कांग्रेस और दूसरी पार्टियां एआईएमआईएम को चुनाव में भाजपा की बी टीम बता रहे हैं।
ओवैसी को तेलंगाना से बाहर पहली कामयाबी महाराष्ट्र में मिली। वर्ष 2019 के चुनाव में वह एक सीट जीतने में सफल रही। लोकसभा में एआईएमआईएम के अब दो सांसद हैं। पार्टी के एक नेता कहते हैं कि हम आरोपों के डर से घर बैठ जाते, तो सिर्फ हैदराबाद तक रहते। एआईएमआईएम का कहना है कि बिहार चुनाव में भी हम पर इस तरह के आरोप लगे थे, पर हमें खुद को साबित किया। वर्ष 2015 के चुनाव में 6 सीट पर चुनाव लड़ा था और पांच पर जमानत जब्त हो गई थी। वर्ष 2020 में 20 मुस्लिम बहुल सीट पर चुनाव लड़ा और पांच जीती। हालांकि, इसकी वजह से राजद-कांग्रेस 20 सीट हार गई। यूपी में भी ओवैसी 2017 के चुनाव में किस्मत आजमा चुके हैं। वह 38 सीट पर चुनाव लड़े और 37 पर जमानत जब्त हुई थी। करीब ढाई फीसदी वोट मिले थे। लिहाजा, पार्टी चुनाव में कुछ सीट पर बेहतर प्रदर्शन करने में सफल रहती है, तो पश्चिम बंगाल में हार के दाग भी धुल जाएंगे। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश सरकार को आदेश दिया था कि उत्तराखंड के एक स्थान से 6 मार्च, 2002 को तबादला किए जाने के बाद से 13 साल तक राज्य के बदायूं में अपने कार्यस्थल पर नहीं जाने वाले डॉक्टर मनोज कुमार शर्मा का पिछला 50 प्रतिशत वेतन दिया जाए।
सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति गुप्ता ने पीठ के लिए फैसला लिखते हुए कहा, कुछ उच्च न्यायालयों में अधिकारियों को तत्काल तलब करने और प्रत्यक्ष या परोक्ष दबाव बनाने का चलन विकसित हो गया है। पीठ ने कहा कि कार्यपालिका के अधिकारी भी सरकार के अंग के रूप में अपना कर्तव्य निभा रहे हैं और अधिकारियों के फैसले या कार्रवाई उनके खुद के फायदे के लिए नहीं होते। बल्कि प्रशासन के हित में तथा सरकारी कोष के संरक्षक के रूप में कुछ फैसले लेने को विवश होना पड़ता है। न्यायालय ने कहा, उच्च न्यायालय को ऐसे फैसले रद्द करने का हमेशा अधिकार है, जो न्यायिक समीक्षा पर खरा नहीं उतरते लेकिन बार-बार अधिकारियों को तलब करना बिल्कुल उचित नहीं है। इसकी कड़े से कड़े शब्दों में निंदा की जानी चाहिए।